Thursday 25 March 2021

शिव की अड़भंगी होली..


रंग पंचमी विशेष//
शिव की अड़भंगी होली...
    महादेव की नगरी काशी की होली भी शिव की तरह ही अड़भंगी होती है. यह दुनिया का इकलौता शहर है, जहाँ अबीर और गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चीता भस्म की होली होती है. घाट से लेकर गलियों तक होली का हर रंग निराला होता है. तभी तो लोग गुनगुना उठते हैं-
खेले मसाने में होली दिगंबर, खेले मसाने में होली,
भूत पिशाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होली...

    "शमशान में होली" खेलने का अर्थ समझते हैं? मनुष्य सबसे अधिक "मृत्यु" से भयभीत होता है। उसके हर भय का अंतिम कारण, अपनी या अपनों की मृत्यु ही होती है। श्मशान में होली खेलने का अर्थ है, उस "भय" से मुक्ति पा लेना है.
    मान्यता है कि काशी की मणिकर्णिका घाट पर, भगवान शिव ने देवी "सती के शव" की दाहक्रिया की थी। तबसे वह "महाशमशान" है, जहाँ चिता की अग्नि, कभी नहीं बुझती।
    एक चिता के बुझने से पूर्व ही, दूसरी चिता में आग लगा दी जाती है।
    वह मृत्यु की लौ है, जो कभी नहीं बुझती, जीवन की हर ज्योति, अंततः उसी लौ में समाहित हो जाती है।
     शिव संहार के देवता हैं न, तो इसीलिए मणिकर्णिका की ज्योति, शिव की ज्योति जैसी ही है, जिसमें अंततः सभी को "समाहित" हो ही जाना है।
    इसी मणिकर्णिका के महाश्मशान में शिव होली खेलते हैं।
    शिव किसी शरीर मात्र का नाम नहीं है, शिव "वैराग्य की उस चरम अवस्था" का नाम है, जब व्यक्ति मृत्यु की पीड़ा,भय या अवसाद से मुक्त हो जाता है।
    शिव होने का अर्थ है, वैराग्य की उस ऊँचाई पर पहुँच जाना है, जब किसी की मृत्यु कष्ट न दे, बल्कि उसे भी, जीवन का एक    आवश्यक हिस्सा मान कर, उसे पर्व की तरह खुशी खुशी मनाया जाय।
    शिव जब शरीर में भभूत लपेट कर नाच उठते हैं, तो समस्त भौतिक गुणों-अवगुणों से मुक्त दिखते हैं।
यही शिवत्व है
शिव जब अपने "कंधे" पर, देवी सती का शव, ले कर नाच रहे थे, तब वे मोह के चरम पर थे।
वे शिव थे, फिर भी शव के मोह में बंध गए थे। "मोह" बड़ा प्रबल होता है, किसी को नहीं छोड़ता।
     सामान्य जन भी विपरीत परिस्थितियों में, या अपनों की मृत्यु के समय, यूँ ही शव के मोह में तड़पते हैं। शिव शिव थे, वे रुके तो, उसी प्रिय पत्नी की "चिता भष्म" से, होली खेल कर, युगों युगों के लिए, वैरागी हो गए।
     मोह के चरम पर ही, "वैराग्य" उभरता है न। पर मनुष्य इस मोह से, नहीं निकल पाता, वह एक मोह से छूटता है तो, दूसरे के फंदे में फंस जाता है।
    शायद यही मोह मनुष्य को, "शिवत्व" प्राप्त नहीं होने देता.
कहते हैं, काशी "शिव के त्रिशूल" पर, टिकी है। शिव की अपनी नगरी है,. "काशी", कैलाश के बाद, उन्हें सबसे अधिक काशी ही प्रिय है।
    शायद इसी कारण, काशी एक अलग प्रकार की, "वैरागी" ठसक के साथ जीती है।
    मणिकर्णिकाघाट, हरिश्चंदघाट, युगों युगों से गङ्गा के, इस पावन तट पर मुक्ति की आशा ले कर, देश विदेश से आने वाले लोग, वस्तुतः शिव की अखण्ड ज्योति में, समाहित होने ही आते हैं।*
ऊँ नमः शिवाय 🙏
(प्रस्तुति : सुशील भोले)
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हर हर महादेव 🙏🙏

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