Saturday 5 January 2019

परंपरा का संरक्षण : ध्वज की परंपरा......

संदर्भ : परंपरा का संरक्षण.....
छत्तीसगढ़ी संस्कृति में ध्वज की परंपरा.......
विश्व की प्राय:  सभी संस्कृतियों में ध्वज की अपनी विशिष्ट परंपरा है। अपने क्षेत्र विशेष की पहचान या अपने ईष्ट देव के प्रतीकों के आधार पर ध्वज के रंग और आकार-प्रकार का निर्माण लोग करते रहे हैं। ऐसे ध्वजों को देखकर ही यह ज्ञात हो जाता है कि वह किस राज्य अथवा देश का है, या फिर किस धर्म विशेष का है। कभी-कभी एक ही धर्म या संप्रदाय में ही अलग-अलग रंग और आकार-प्रकार के ध्वज दिख जाते हैं।

जहाँ तक छत्तीसगढ़ की बात है, तो यहां की मूल संस्कृति में तीन अलग-अलग रंगों के ध्वज का प्रयोग देखा जाता है। सबसे पहले सफेद रंग का और फिर लाल रंग का और उसके बाद फिर काला रंग का। ये तीनों ही रंग के ध्वज यहां की उपासना पद्धति और उनसे संबंधित देवताओं को प्रतिबिंबित करते हैं।

सफेद रंग यहां के मूल उपास्य देव भगवान शिव का प्रतीक है, जिसे यहां बूढ़ादेव, ठाकुर देव या ईसर देव भी कहा जाता है।

लाल रंग माता शक्ति का प्रतीक है, जिसे यहां बमलाई, चंडी, बूढ़ीमाई जैसे नामों से भी संबोधित किया जाता है।
इसी प्रकार काला रंग यहां की उपास्य महामाया का प्रतीक है।

यहां की मूल संस्कृति को जीने वाले मांत्रिक, जिसे स्थानीय भाषा में बइगा या पंडा भी कहा जाता है, इन्हीं तीन रंगों के ध्वज का प्रयोग अपने सभी कार्यों में करते हैं। यहां के प्राचीन मंदिरों में जहां की पूजा मूल निवासी समुदाय का पंडा करता है, वहां अब भी यही तीन रंग आयताकार ध्वज के रूप में लहराते हुए देखे जा सकते हैं। उसके आधार पर दूर से ही यह जाना जा सकता है कि वह मंदिर किस देव अथवा देवी का है?

लेकिन आजकल एक अलग ही रंग के ध्वज यहां के मंदिर और पूजा स्थलों पर लहराते देखे जा रहे हैं। भगवा रंग का ध्वज। वह भी सभी मंदिरों और धार्मिक स्थलों तथा ऐसे सभी आयोजनों में, जिनका संबंध किसी न किसी आध्यात्मिक कार्यक्रमोंं से होता है। जबकि यह सर्वविदित है कि भगवा रंग का संबंध छत्तीसगढ़ की मूल संस्कृति में दूर-दूर तक भी नहीं है। दरअसल यह अन्य प्रदेशों से लाकर यहां की संस्कृति को विकृत कर उस पर बाहरी पूजा प्रतीकों को थोप रहे लोगों की पहचान का रंग है, जिसे किसी भी सूरत में यहां की मूल संस्कृति में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

आश्चर्य है, कि छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को जिस बेहूदगी के साथ परिवर्तित कर मिटाने का प्रयास किया जा रहा है, उस पर बोलने वाला यहां कोई भी नहीं है। आखिर क्यों ऐसा हो रहा है? यहां का कोई भी मूल निवासी समाज इस पर क्यों आवाज नहीं उठाता? कहीं ऐसा तो नहीं कि लोग रंगों पर आधारित ध्वज का महत्व ही समझना भूल गये हैं, अथवा ऐसा तो नहीं कि बाहर से लाकर थोपे जा रहे धार्मिक प्रतीकों को अपनाने के लिए यहां का समाज विवश हो गया है? कहीं इसीलिए तो उनके पूजा स्थलों से उन्हें बेदखल कर बाहर के लोगों को वहां स्थापित करने का काम चौतरफा देखा जा रहा है?

राजधानी रायपुर का ऐतिहासिक बूढ़ातालाब,  बूढ़ापारा और बूढ़ेश्वर मंदिर को उदाहरण के रूप में रखा जा सकता है। ये तीनों ही स्थल एक जगह पर स्थित हैं, और यहां के मूल देवता बूढ़ादेव के प्रतीक स्वरूप हैं। लेकिन आज इन तीनों के साथ जो हो रहा है, उसे किसी भी प्रकार से यहां की पहचान को सुरक्षित और संरक्षित करने का उपक्रम नहीं कहा जा सकता। बूढ़ातालाब को विवेकानंद सरोवर के रूप में नई पहचान दे दी गई है, और बूढ़़ेश्वर मंदिर पर अन्य प्रदेश  से आये हुए लोग अवैध कब्जा कर वहां अपनी परंपरा के अनुसार पूजा-उपासना और विविध आयोजन करने लगे हैं। अर्थात यहां की मूल परंपरा का अब वहां कोई नामलेवा भी नहीं रहा।

इस कड़ी में राजिम में आयोजित होने वाले पारंपरिक मेले को रखा जा सकता है, जिसे  पिछली सरकार ने "कुंभ" का नाम देकर अन्य प्रदेशों से आने वाले कथित साधु-संतों के लिए चारागाह बना दिया गया था। यह तो वर्तमान सरकार का समझ भरा निर्णय है, कि "कुंभ" का नाम परिवर्तित कर उसे पारम्परिक रूप से "पुन्नी महोत्सव" का नामकरण किया गया है।

यह बात सभी जानते हैं कि छत्तीसगढ़ के प्राय: सभी गांव-कस्बों में मड़ई या मेला का आयोजन लगातार  होता है। ये छोटे स्तर के मड़ई-मेले गांव के बाजार स्थल पर या किसी अन्य स्थल पर आयोजित कर लिए जाते हैं। लेकिन जो बड़े स्तर के मेले होते हैं वे सभी किसी न किसी सिद्ध शिव स्थलों पर ही होते हैं। इसलिए हम यह प्राचीन समय से सुनते और देखते आ रहे हैं कि राजिम मेला कुलेश्वर महादेव के नाम पर भरने वाला मेला कहलाता था। एक गीत हम बचपन में सुनते थे- *चल ना चल राजिम के मेला जाबो, कुलेसर महादेव के दरस कर आबो...*  लेकिन जब से इस मेला को "कुंभ" के रूप में परिवर्तित किया गया था, तब से इसे "राजीव लोचन" के नाम पर भरने वाला कुंभ के रूप में प्रचारित किया जा रहाथा, जो कि यहां की मूल संस्कृति को समाप्त कर उसके ऊपर अन्य संस्कृति को थोपने का षडयंत्र मात्र था।

छत्तीसगढ़ के तथाकथित बुद्धिजीवियों पर, उनके क्रियाकलापों पर आश्चर्य होता थख। वे इस तरह की सांस्कृतिक विकृतियों पर कैसे खामोश रहकर सरकार की जी-हुजूरी में लगे रहते थे?

अब देखना यह है, हमारी धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता का प्रतीक "ध्वज" कब स्वतंत्र होकर खुले आसमान में लहरायेगा? यही प्रश्न अब जनमानस को उद्वेलित कर रहा है। क्या वर्तमान सकार इस दिशा में भी कोई दिशा-निर्देश जारी करेगी?

सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान
संजय नगर, रायपुर (छ.ग.)
मोबा. नं.98269-92811

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