Tuesday 8 January 2019

अस्मिता की आत्मा : संस्कृति

अस्मिता के आत्मा आय संस्कृति.....
आजकाल 'अस्मिता" शब्द के चलन ह भारी बाढग़े हवय। हर कहूँ मेर एकर उच्चारन होवत रहिथे, तभो ले कतकों मनखे अभी घलोक एकर अरथ ल समझ नइ पाए हे, एकरे सेती उन अस्मिता के अन्ते-तन्ते अरथ निकालत रहिथें, लोगन ल बतावत रहिथें, व्याख्या करत रहिथें।

अस्मिता असल म संस्कृत भाषा के शब्द आय, जेहा 'अस्मि" ले बने हे। अस्मि के अर्थ होथे 'हूँ"। अउ जब अस्मि म 'ता" जुड़ जाथे त हो जाथे 'अस्मिता" अउ ये दूनों जुड़े शब्द के अरथ होथे- 'मैं कोन आँव?", मैं कौन हूँ?, मेरी पहचान क्या है?, मोर चिन्हारी का आय? अब ये बात ल तो सबो जानथें के हर मनखे के या क्षेत्र के चिन्हारी वोकर संस्कृति होथे। एकरे सेती हमन कहिथन के जे मन छत्तीसगढ़ के संस्कृति ल जीथे वोमन छत्तीसगढिय़ा। अइसने जम्मो क्षेत्र के लोगन के निर्धारण उंकर संस्कृति संग होथे।

एक बात इहाँ ध्यान दे के लाइक हे के भाषा ह संस्कृति के संवाहक होथे, वोकर प्रवक्ता होथे, एकरे सेती कोनो क्षेत्र विशेष के भाषा भर ल बोले म कोनो मनखे ल वो क्षेत्र के मूल निवासी नइ माने जा सकय। अब हमन छत्तीसगढ़ के संदर्भ म देखन। इहाँ के मातृभाषा छत्तीसगढ़ी ल आज इहाँ के मूल निवासी मन के संगे-संग बाहिर ले आके रहत लगभग अउ जम्मो लोगन थोक-बहुत बोलबेच करथें, तभो ले उनला हम छत्तीसगढ़ के मूल निवासी नइ मानन, काबर उन आजो इहाँ रहि के घलोक अपन मूल प्रदेश के संस्कृति ल जीथें।

पंजाब ले आये मनखे पंजाब के संस्कृति ल जीथे, बंगाल ले आये मनखे बंगाल के संस्कृति ल जीथे, अउ अइसने आने लोगन घलो अपन-अपन मूल प्रदेश के संस्कृति ल ही जीथें, उही संस्कृति के अंतर्गत इहाँ कतकों किसम के आयोजन  घलोक करत रहिथें। ए ह ए बात के चिन्हारी आय के वो ह आज घलोक छत्तीसगढ़ के 'चिन्हारी" ल अपन 'चिन्हारी" नइ बना पाए हे, इहाँ के अस्मिता ल आत्मसात नइ कर पाए हें। अउ जब तक वो ह इहाँ के अस्मिता ल आत्मसात नइ कर लेही तब तक वोला छत्तीसगढिय़ा नइ माने जा सकय।

हम ए उदाहरण म भारत ले जा के विदेश म बसे लोगन मनला घलोक शामिल कर सकथन। आज घलो अइसन लोगन ल हम भारतीय मूल के लोगन कहिथन, भारतीय संस्कृति ल विदेश म बगराने वाला कहिथन काबर ते उन आने देश म रहि के घलोक भारत के संस्कृति ल जीथें, भारत के तिहार-बार ल मनाथें। जबकि उहाँ बसे अइसे कतकों लोगन हें, जे मन भारत के भाषा ल भुलागे हवंय, फेर संस्कृति ल आजो धरे बइठे हावंय।

क्रिकेट खेले बर इहाँ वेस्ट इंडीज के जेन टीम आथे, वोमा अइसन कतकों झन रहिथें, जे मन भारतीय मूल के होथें, उंकर मनके नाम घलोक शिवराम चंद्रपाल जइसन भारतीय किसम के होथे, फेर उन इहाँ के भाषा ल नइ बोले सकयं। भाषा उहें के बोलथें जिहाँ अब रहिथें, तभो ले उनला भारतीय मूल के कहे जाथे, काबर ते वोकर पहिचान के या कहिन के चिन्हारी के मानक संस्कृति होथे।

अब हम छत्तीसगढ़ के संस्कृति के बात करन या कहिन के अस्मिता के बात करन। त सबले पहिली ए बात उठथे के छत्तीसगढ़ के संस्कृति का देश के आने भाग म पाए जाने वाला संस्कृति ले अलग हे? त एकर जवाब हे- हाँ बहुत अकन परब-तिहार अउ रिति-रिवाज अलग हे, अउ उही अलगे मनके सेती हम छत्तीसगढ़ ल एक अलग साँस्कृतिक इकाई मानथन, जेकर सेती ए क्षेत्र ल एक अलग राज के रूप म मान्यता दे गे हवय। वइसे कुछ अइसे घलोक तिहार-बार हे, जेला पूरा देश के संगे-संग छत्तीसगढ़ म घलोक मनाए जाथे, फेर जब अलग चिन्हारी के बात आथे त अइसन मनला अलगिया दिए जाथे।

अब प्रश्न ये उठथे के अइसन का अलग हे, जेन संस्कृति ल आने प्रदेश म नइ जिए जाय? त ए बात ल सब जानथें के मैं ह इहाँ के मूल संस्कृति ऊपर पहिली घलोक अड़बड़ लिखे हौं, अउ बेरा-बेरा म एकर ऊपर चरचा-भासन घलोक दिए हौं, तभो ले कुछ रोटहा बात ल थोक-मोक फेर करत हावंव।

सबले पहिली छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति का आय, तेला फोरिया लेथन? काबर ते आज इहां के संस्कृति के जेन रूप देखाए जावत हे, वोकर मानकीकरण ल गलत करे जावत हे। असल म कोनो भी क्षेत्र या प्रदेश के संस्कृति के मानक उहाँ के मूल निवासी मन के संस्कृति होथे, बाहिर ले आके इहाँ बस गे लोगन मन के संस्कृति ह नइ होवय, फेर कोन जनी इहाँ के तथाकथित विद्वान मनला का मनसा भरम धर लिए हे, ते उन इहाँ के मूल निवासी मनके संस्कृति ल एक डहर तिरिया दिए हें, अउ बाहिर ले आए लोगन मन के संस्कृति ल छत्तीसगढ़ के संस्कृति के रूप म लिखत-पढ़त हें।

ये ह असल म इतिहास लेखन संग दोगलागिरी करना आय, तभो ले कुछ लोगन ए दोगलागिरी ल पूरा बेसरमी के साथ करत हें। एमा वो लोगन मन के संख्या जादा हे, जे मन उत्तर भारत ले आ के इहाँ बसे हवंय, एकरे सेती उन अस्मिता के आत्मा के रूप म संस्कृति ल छोड़ के भाषा ल बतावत रहिथें। काबर ते उन ए बात ल अच्छा से जानथें के जब इहाँ के मूल संस्कृति के बात करबो तब तो हमूँ मन गैर छत्तीसगढिय़ा हो जाबो, बाहिरी हो जाबो, काबर ते छत्तीसगढ़ के संस्कृति ल तो उहू मन नइ जीययं।

अब कुछ मूल संस्कृति के बात। त सबले पहिली वो चातुर्मास के बात जेला चारोंखुंट मनाथें, फेर जे छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति म लागू नइ होय। अइसे कहिथें के चातुर्मास के चार महीना म देंवता मन बिसराम करथें या कहिन के सूत जाथें, एकरे सेती ए चार महीना (सावन, भादो, कुंवार अउ कातिक) म कोनो भी किसम के शुभ कारज (माँगलिक कार्य, जइसे- बर-बिहाव आदि) नइ करे जाय।

अब हम छत्तीसगढ़ के परब-तिहार के बात करन त देखथन के इहाँ ईसरदेव अउ गौरा के बिहाव के परब ल 'गौरा पूजा" या 'गौरी-गौरा" के रूप म इही चातुर्मास के भीतर माने कातिक महीना के अमावस्या तिथि म मनाए जाथे। अब प्रश्न उठथे, के जब इहां के बड़का भगवान के बिहाव ह देवउठनी माने  चातुर्मास सिराये के पहिली हो जाथे, त ए चातुर्मास के रिवाज ह हमर छत्तीसगढ़ के संस्कृति म कहाँ लागू होइस?

मोर तो ए कहना हे के छत्तीसगढ़ के संस्कृति म चातुर्मास के इही चारों महीना ल सबले जादा शुभ अउ पवित्र माने जाथे, काबर ते इही चारों महीना- सावन, भादो, कुंवार, कातिक म ही छत्तीसगढ़ के मूल संस्कृति के जम्मो बड़का परब मन आथें, जेमा हरेली ले लेके कातिक पुन्नी ले चालू होवइया मेला-मड़ई परब ह आथे।

अब एक अइसे बड़का तिहार के चरचा जेला पूरा देश म मनाए जाथे, फेर वोकर कारण अउ स्वरूप म बाहिर म अउ छत्तीसगढ़ म थोर-बहुत फरक होथे, वो तिहार आय होली। होली के बारे ए बात ल जानना जरूरी हे के छत्तीसगढ़ म एला 'काम दहन" के रूप म मनाए जाथे, जबकि देश के आने भाग म 'होलिका दहन" के सेती। होलिका दहन ल सिरिफ पाँच दिन के मनाए जाथे, जे ह फागुन पुन्नी ले लेके रंग पंचमी (चइत महीना के अंधियारी पाख के पंचमी) तक चलथे। छत्तीसगढ़ म जेन 'काम दहन" मनाए जाथे वोला चालीस दिन के मनाए जाथे- बसंत पंचमी (माघ महीना अंजोरी पाख के पंचमी) ले लेके फागुन पुन्नी तक।

बिल्कुल अइसने दसरहा के बारे म जानना घलोक जरूरी हे। काबर के इहू परब ल छत्तीसगढ़ म अउ देश के आने भाग म अलग-अलग कारण के सेती मनाए जाथे। जिहाँ देश के आने भाग म एला 'रावण वध"  के सेती मनाए जाथे, उहें छत्तीसगढ़ म 'विष हरण" माने 'दंस हरन" के रूप म मनाए जाथे। हमर बस्तर म जेन रथ यात्रा के परब मनाए जाथे वो असल म मंदराचल पर्वत के मंथन अउ वोकर बाद निकले विष के हरण के परब आय।

अस्मिता के जब बात होथे त भाषा अउ इतिहास के बात घलोक होथे। काबर ते इहू मन अस्मिता माने 'चिन्हारी" के अंग आयं। जिहाँ तक भाषा के बात हे त हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा सन् 1885 म लिखे छत्तीसगढ़ी भाखा के व्याकरण संग एकर प्रकाशित रूप हमर आगू म हवय, जेला अब इहाँ के राज सरकार ह प्रदेश म 'राजभासा" के दरजा दे दिए हवय, फेर केन्द्र सरकार के माध्यम ले संविधान के आठवीं अनुसूची म शामिल करे के बुता ह अभी घलोक बाँचे हवय।

आज छत्तीसगढ़ी भाखा म हर विधा के अंतर्गत रचना करे जावत हे, अउ अच्छा रचना करे जावत हे, जेला राष्ट्रीय स्तर के आने भाखा के साहित्य  मन संग तुलना करे जा सकथे। नवा पीढ़ी के रचनाकार मन म अच्छा उत्साह देखे जावत हे, जे मन ल इहां के पत्र-पत्रिका मन म प्रकाशन के अवसर घलोक अच्छा मिलत हे। सबले बढिय़ा बात ये हे के इंटरनेट के आधुनिक तकनीक के प्रयोग घलोक ह छत्तीसगढ़ी भाखा ल देश-दुनिया के चारों खुंट म पहुंचावत हे। ए सबला देख के लागथे के छत्तीसगढ़ी के आने वाला बेरा ह चमकदार रइही।

आखिरी म इतिहास के घलोक खोंची भर बात हो जाय। काबर ते इहाँ जेन किसम के इतिहास लेखन होवत हे वोकर ले मैं भारी नराज हावंव। ए देखे म आवत हे के अधकचरा जानकारी रखने वाले मन इहां इतिहासकार अउ गुन्निक बनके सबला चौपट करत हवयं। संग म इहू देखे म आवत हवय के कुछ वर्ग विशेष के मनखे मन जानबूझ के आने वर्ग के लोगन मन के बड़े-बड़े कारज मन के घलोक उपेक्षा करत हें। एमा विश्वविद्यालय मनके भूमिका घलोक ह बने नइ लागत हे। भलुक ए कहना जादा ठीक होही के आँखी मूंद के पीएचडी के डिगरी ल बांटे जावत हे। ए सब दुखद हे। भरोसा हे के ईमानदार आँखी के माध्यम ले ये सबला नवा सिरा से देखे जाही।

सुशील भोले
संजय नगर (टिकरापारा) रायपुर
मो.नं. 098269-92811

No comments:

Post a Comment