Friday 9 April 2021

बाल लीला....

बाल लीला...
    लोगों को अक्सर यह कहते सुनते रहे हैं, कि बच्चों में भगवान का वास होता है. अनेक किताबों में भी ऐसा पढ़ने को मिल जाता था, लेकिन ऐसा अनुभव करने का अवसर पहले कभी मिला नहीं था.
  पहला कारण तो यह था, कि मैं घर पर ज्यादा रहता ही नहीं था. शुरू से सामाजिक, साहित्यिक और पत्रकारिता से जुड़ जाने के कारण घर पर चैन से रहने के लिए समय ही नहीं मिलता था. हां इतना अवश्य है कि अपनी बेटी को बचपन में खेलते देखकर कुछ बाल गीत जरूर लिख लिया करता था. जैसे-
फुदुक फुदुक भई फुदुक फुदुक
खेलत हे नोनी फुदुक फुदुक...
बिन कपड़ा बिन सेटर के जाड़ ल बिजरावत हे
कौड़ा-गोरसी घलो ल ए हर ठेंगा देखावत हे
बिन संसो बिन फिकर के कुलकत हे ये गुदुक गुदुक...
फुदुक फुदुक भई...

  अपने बचपन का स्मरण कर भी उसे फिर से पाने की आस लिए भी लिखा था-

तैं कहाँ गंवा गेस मोर लइकई के हांसी
सुरता कर देथे तोर अब तो रोवासी....
कन्हैया कस महूं ह फुदुर फुदुर रेंगव
मंद पिए कस फेर भुदरुस ले गिरवं
महतारी ह धरा-रपटा उठावय
ठउका कूदे हस कहिके हंसावय
फेर पलथिया के झड़कंव मैं बासी...
तैं कहाँ गंवा गेस मोर लइकई के हांसी....
   यह अपने बचपन का स्मरण और अपनी बेटी को खेलते हुए देखकर लिखने का प्रयास मात्र था. बाल लीला का साक्षात नहीं, जिसमें बच्चों में भगवान का वास होता है कहा जाता है.
  वैसे मेरी पहचान मेरे घर में एक अच्छे पिता के रूप में कभी नहीं बन पायी, क्योंकि मुझे बच्चों की शैतानी पर उन्हें प्यार करने के बजाय गुस्सा आ जाता था. बच्चों को मैं डांटने और कभी तो हाथ उठाने भी लग जाता था.
  शायद ऐसा मेरी अत्यधिक व्यस्तता के कारण भी होता रहा हो. लेकिन अब जब से अपने स्वास्थ्य के कारण मैं घर पर ही  रहने लगा हूँ, बच्चों के साथ ही साथ अन्य परिवार जनों के प्रति भी मेरा व्यवहार परिवर्तित होता आभास हो रहा है.
  मुझे दो वर्ष पूरे हो गये घर पर रहते हुए. पहला वर्ष तो अत्यधिक शारीरिक कष्ट और मिलने आने वाले लोगों के साथ बीत गया. दूसरे वर्ष में मिलने वालों की संख्या कम हुई, शारीरिक अक्षमता का अहसास भी कम हुआ. इस बीच हमारे घर पर एक नये मेहमान का भी आगमन हुआ. जिसके बाल्यकाल को मुझे बहुत निकट से देखने और समझने का अवसर  मिला.
  रुद्राक्ष मेरा नाती है. इसे देखते ही मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता है. इसकी शैतानियों पर अब पहले के बच्चों की तरह गुस्सा नहीं आता, अपितु चेहरे पर मुस्कान खिल जाता है. इसे शरारत करते देखकर यह पंक्ति निकल गई-

लुड़बुड़ ले रेंगत देख धुक ले करथे छाती
फेर मड़िया के वो खेल देथे उलांदबाटी
घर के जतका बर्तन भांड़ा तेला नंगत ठठाथे
रार मचाथे दिन भर मोर उतियइल नाती..
   रुद्राक्ष अभी मात्र एक वर्ष का ही हुआ है. ठीक से चल भी नहीं पाता. लेकिन मेरे दृष्टिकोण को परिवर्तित करने में सक्षम हो गया है. इसकी बाल लीलाओं को देखकर अब सच में अहसास होने लगा है, कि बच्चों के अंदर वाकई  किसी दिव्य आत्मा का वास होता है, जिन्हें हम भगवान का रूप मान लेते हैं.
-सुशील भोले
संजय नगर, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811

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