Thursday, 15 April 2021

छत्तीसगढ़ में पंडवानी प्रसंग..

छत्तीसगढ़ में पंडवानी प्रसङ्ग
पण्डवानी का स्वरूप-----–

पाण्डवों की कथा महाभारत की कथा है। महाभारत की कथा भारत के सांस्कृतिक स्पन्दन की कथा है। महाभारत के पात्र, विषय, मूल्य, द्वन्द्व, नीति और समाज शास्त्र हमारे स्मृति मंत्र हैं। जीवन के संग्राम में हम उनको स्मरण करते हैं। भारतीय मानस की कठोर शिला पर खड़े होकर कहीं हम महाभारत के करुण कोमल प्रसंगों को उठाते हैं, तो कहीं ओजस्वी प्रसंगों को। ग्रामीण अंचल तो मानो महाभारतमय है। १८ पर्वो को एक एक कर अपने ताने बाने में पिरोकर नई लोक शैली की उद्भावना कर दी गई है।

छत्तीसगढ़ में महाभारत की कथा को कई रूपों में गाया जाता है। कहीं किवदंती के रूप में और कहीं शास्त्रीय गायन के रूप में। 'पण्डवानी' के रूप में प्रचलित लोकगायन शैली छत्तीसगढ़ के हृदय की करुण गाथा है, साथ ही दर्शन भी। पूरा भारतीय धर्म व दर्शन, परिभाषित होकर, नीतियाँ सोदाहरण उल्लिखित होकर, समन्वित ज्ञान कथा का भण्डार, करुणा से आप्लावित हो जाता है।

'पण्डवानी' की गौरवशाली परंपरा में स्व. नारायण वर्मा भजनहा, स्व. सूबेदार आडिल, झाडूराम देवांगन, पूनाराम निषाद का नाम अमर रहेगा, जिन्होंने पण्डवानी को रोचक, लोकप्रिय व शास्त्रसम्मत बनाने का प्रयास किया। तीजन बाई, तक आते आते पण्डवानी का स्वरूप व्यावसायिक हो गया एवं नाटकीयता अधिक आ गई।

"पण्डवानी" छत्तीसगढ़ की संस्कृति में एक उदात्त लोकशैली का जीवंत रूप है।

"पण्डवानी" का उत्स यदि महाभारत की कथा है, तो दूसरी ओर लोकमानस का धर्म प्राण, संवेदनशील, आस्थावान होना भी है। संगीत की कलात्मक शैली में उसे आबद्ध करना, मानो छत्तीसगढ़ के लोकजीवन की रागात्मकता को व्यक्त करना है। पण्डवानी भारतीय आख्यान का मानवीकरण है।

महान् क्लासिक संस्कृत साहित्य की गौरवपूर्ण भारतीय परंपरा में महाभारत का महत्व असंदिग्ध रूप से स्थापित है। लोकजीवन में इस क्लासिक के प्रभाव की एक दूसरी दुनिया एक महान भारतीय आख्यान के मानवीकरण का 'पण्डवानी' जैसा उदाहरण कठिनाई से मिलेगा।

महाभारत की कथा को लिपिबद्ध करने के संबंध में कहा जाता है कि व्यास के आग्रह पर गणेश ने इस कथा को लिपिबद्ध करना स्वीकार किया, किंतु पण्डवानी नामक छत्तीसगढ़ी लोक गाथा के इस छोटे से कथा प्रसंग में कथा को लिपिबद्ध करने वाले और कथावाचक रूपी दो व्यक्तियों का आख्यान इस कथा के जनश्रुति होने की बात को प्रतिनिधित्व करता है। महाभारत की संपूर्ण कथा (पाण्डव संबंधी) लोक शैली में एक
सूत्र में पिरोई गई ,छोटी लोककथाओं का अद्भुत संग्रह है। संभवतः इसी कारण संपूर्ण भारत में महाभारत की कथा स्थानीय लोक विश्वासों के साथ आज भी जीवित है। भारत के अन्य अंचलों की तरह छत्तीसगढ़ अंचल का अपना विशेष महत्व है। ऐसी धारण है कि पाण्डवों ने इस अंचल की यात्रा की थी। छत्तीसगढ़ में प्रचलित "पण्डवानी" महाभारत की कथा का छत्तीसगढ़ी रूप है। इसके अंतर्गत पण्डवानी गायक सम्पूर्ण मर्यादा के साथ, कथा को लौकशैली में प्रस्तुत करते हैं।

पण्डवानी की शैली------

छत्तीसगढ़ में "पण्डवानी" की दो शैलियां है (१) कापालिक शाखा (२) वेदमती शाखा

कापालिक गायकों की “पण्डवानी" की कथा पाण्डवों से संबंधित होती है। परंतु संपूर्ण “पण्डवानी” का नायक भीम होता है। इसमें अनेक उपकथाओं का समावेश है महाभारत के पात्र केवल मिथकीय रूप में कथा से जुड़े होते हैं। कापालिक गायक स्थानीय लोक विश्वासों, घटनाओं आदि को आधार बनाकर पण्डवानी की संरचना करता है। कथा पूर्णतया उनके मस्तिष्क की उपज होती है इसलिए इसे “कापालिक" कहा जाता है।

वेदमती शाखा- ----वेदमती अर्थात् वेदों, शास्त्रों के द्वारा प्रमाणित पाण्डवों की कथा। इस शाखा के पण्डवानी गायकों की कथा जनश्रुति से अलग भगवान व्यास के महाभारत की कथा के आसपास और लोकशैली में निर्मित महाभारत की ही कथा होती है। इसमें भी गायकों की दो परंपराएं- १. मौलिक परंपरा या लोक परंपरा (२) सबल सिंह चौहानकृत महाभारत की कथा की लोकशैली में गायकों की परंपरा। मौलिक परंपरा कथा शाखा, शास्त्र सम्मत कथा के काफी नजदीक होती है। इसमें लोकरंग की अभिव्यक्ति सशक्त होती है।

   
पण्डवानी गायकों की परंपरा  में  मामाभांजा की जोड़ी-
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छत्तीसगढ़ में पण्डवानी गायकों की परंपरा में पहला नाम अर्जुनी क्षेत्र में, ग्राम झीपन (जिला बलौदाबाजार) के मालगुजार स्व. नारायण वर्मा “भजनहा" का लिया जाता है। इस परंपरा में दूसरा नाम स्व. रामचंद्र वर्मा का आता है जो सरसेनी ग्राम के संपन्न खेतिहार कृषक थे। सरसेनी ग्राम भी बलौदाबाजार जिला के अंतर्गत है। तीसरा व महत्वपूर्ण नाम स्व. सूबेदारजी का आता है जो बोड़तरा ग्राम के मालगुजार थे। बोड़तरा ग्राम भाटापारा से ४ कि.मी. दूर हथबन्ध की ओर बसा हुआ है।

आज जब भी “पण्डवानी" प्रसंग, परंपरा और विकास की चर्चा होती है, “पण्डवानी” के प्रख्यात गायकों“मामा-भांजा" की जोड़ियों को भुला दिया जाता है।। छत्तीसगढ़ में “पण्डवानी” का प्रसंग “मामा-भांजा" गायकों के स्मरण के बिना अधूरा है।
सन् १८८० के दशक में झीपन के मालगुजार नारायण वर्मा ने अपने भांजे को अपने साथ जोड़कर पण्डवानी गायकी की शुरूआत की। यह पण्डवानी की वेदमती शाखा की उदात्त शैली का प्रारंभिक रूप था। गायकों की यह पहली जोड़ी "मामा भांजा" की जोड़ी के रूप में प्रसिद्ध हुई। सन् १९०३ में ग्राम बोड़तरा में जन्मे मालगुजार सूबेदार जी १५-१६ वर्ष की आयु से ही पण्डवानी गायन एवं भगवत् प्रसंग की ओर आकृष्ट हुए। धार्मिक रूझान वाले सूबेदार दाऊ अपने रिश्ते के भाई, पण्डवानी गायक दाऊ नारायण वर्मा की मण्डली में शामिल होने लगे। दाऊ नारायण “भजनहा" के वृद्ध होने के बाद दाऊ सूबेदार “भजनहा” ने अपने भांजे किरीतराम व शालिगराम को लेकर अलग मण्डली बनाई। मामा भांजा की वह दूसरी जोड़ी को और भी अधिक प्रसिद्धि मिली, व व्यापक मंच मिला।
वस्तुत: उस समय पण्डवानी गायन का स्वरूप धार्मिक आस्था से जुड़ा था। मर्यादा, और व्यास गद्दी के प्रति सम्मान से भरा हुआ जन मानस पण्डवानी गायकों को श्रद्धा से देखता था। बरसात में “आल्हा ऊदल", ठण्ड व गरमी में “पण्डवानी’ - छत्तीसगढ़  की संस्कृति के अभिन्न अंग रहे हैं। इस ग्रामीण संस्कृति की परम्परा को विस्मृत करके या नकारकर हम अपनी ही धरती के साथ बेईमानी करेंगे।
आज “पण्डवानी” मनोरंजन का साधन बन रहा है , पर कल तक यही “पण्डवानी"  एक सामाजिक धार्मिक आयोजन के संस्कारों में बँधा था। यह " पाण्डवानी” शाम चार  बजे प्रारंभ होता, गोधूलि बेला में समाप्त होता। “रतिहा जेवन के बेरा” के पूर्व खत्म होता। अर्थात् भोजन के करीब ३ घण्टे पूर्व खत्म होता।

ब्यास गद्दी “गुड़ी” के बीचों बीच, ऊँचा चौरा में बनाते या तखत की व्यवस्था  करते। इस वेदमती शाखा की पण्डवानी गायकी में सबल सिंह चौहान के महाभारत की कथा को आधार मानते थे। गणेशवन्दना, सरस्वती वंदना, से गायन प्रारंभ करते। इसमें “चढ़ोत्तरी" भी चढ़ाते थे। गायन का प्रारंभ व अंत “वृन्दावन बिहारीलाल की जय" से होता था। इस प्रारंभिक काल के पण्डवानी गायन में वाद्य------खंजेड़ी, करताल और तंबूरा होता था। पण्डवानी गायक के दोनों हाथों में करताल व तंबूरा होता था। खंजेड़ी वाला गायक के सुर में सुर मिलाता । खंजेड़ी वाले की संख्या एक से तीन तक होती थी। “हुंकारू” तीसरा व्यक्ति देता था ।

पण्डवानी गायक की वेशभूषा में, सलूखा, धोती, गमछा (लाल या सफेद) हाथ में चाँदी का चूड़ा, वैष्णवी तिलक, लंबे बाल होते थे। पण्डवानी में भावों की प्रधानता (Emotions) अधिक होती थी। गायकी का संचालन भी रस से भरा हुआ होता था।
दर्शक व श्रोता पूर्णरूपेण उस भावना या रस में बह जाते थे।

"मामा-भांजा" की दोनों गायक जोड़ियों का पण्डवानी गायन महासिंग चंद्राकर एवं रामचंद्र देशमुख ने सुना था। ये दोनों उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। चंद्राकर एवं देशमुख ने दाऊ सूबेदार भजनहा की "पण्डवानी" दुर्ग ग्राम पन्दर और तरेंगा में देखा। वे दोनों “मामा-भांजा" के पण्डवानी गायन के मुग्ध प्रशंसक थे।

• छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के उन्नायकों में यहां के मालगुजारों का विशिष्ट स्थान
है। उन्होंने अपने कलाकारों का पोषण किया, उन्हें जीविका दी, प्रेम दिया, नैतिक बल दिया। लोकसंस्कृति की यह अभूतपूर्व घटना छत्तीसगढ़ के इतिहास में अंकित करने लायक है। सामाजिक जीवन के अध्येताओं के लिए यह एक शोध का विषय है कि सामाजिक समरसता एवं समन्वय, छत्तीसगढ़ी संस्कृति का मूल आधार है। वेदमती शाखा शैली के प्रारंभिक काल के प्रमुख गायक सूबेदार जी का व्यक्तित्व दबंग पर बेहद आकर्षक और मध्यकालीन संत की तरह आध्यात्मिक था। उन्होंने पंडवानी को शास्त्र सम्मत आयाम दिया। उन्हें‘“द्रौपदी का चीर-हरण" प्रसंग तथा "घटोत्कच" प्रसंग विशेष प्रिय था। महाभारत के ८ पर्वों के खास-खास प्रसंगों को उन्होंने गद्य-पद्य- पण्डवानी शैली में लिखा है---- जो अभी प्रकाशनाधीन है। उनकी हस्तलिखित पाण्डुलिपियां संकलित की जा रही हैं ,जो ग्राम बोड़तरा में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ी का पुट देकर पण्डवानी कथा गायन को शब्दबद्ध करना, अपने आप में श्लाघनीय प्रयास है।
सूबेदार जी के साथ संगत पर रागी बैठते थे। करताल, तंबूरा, खंजेड़ी और इकतारा ये ४ वाद्य रहते थे। इकतारा में २ तार होते थे- दीर्घ व ह्रस्व। सूबेदारजी से पूर्व ,सारंगी में नंदुआ- घटोत्कच की कथा, दंतकथा के रूप में गाया जाता था। आधुनिक पण्डवानी को
शास्त्रीय  शैली में सूबेदारजी ने ही ढाला।
सूबेदारजी के बाद झाडूराम देवांगन व पूनाराम निषाद इसी वेदमती शैली के गायक हैं। सूबेदारजी की मृत्यु १६ अप्रैल १९७५ में हुई। इस समय वे ७३ वर्ष के थे। उनकी गायकी की लोकप्रियता में एक कथा जुड़ गई है कि वे जहाँ भी किसी बारात में सम्मिलित होते-उनकी पण्डवानी सुनने के लिए बारात को २-३ दिन तक रोक लिया जाता था। उस गांव के लोग बारातियों के भोजन व आवभगत की व्यवस्था सामूहिक रूप से करते थे।
उसी परंपरा में आगे झाडूराम देवांगन को १९८४ में म.प्र. सरकार का सर्वोच्च शिख पुरस्कार, लोककला के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए दिया गया। पूनाराम निषाद भी बहुत सम्मानित व लोकप्रिय हुए।
“पण्डवानी" किसी जाति विशेष की कला नहीं है। सभी जाति के लोग पण्डवानी गया सकते हैं!
झाडूराम देवांगन के साथ मंच पर ५ व्यक्ति बैठते रहे (१ श्री झाडूराम देवांगन (२) रामनाथ यादव (३) कुंज बिहारी (४) लखनलालवर्मा (५) विक्रम दास
इनमें रागी एक है- रामनाथ यादव ।झाडूराम देवांगन भी सबल सिंह चौहान कृत महाभारत को आधार मानकर गायकी करते हैं। इन्होंने विदेश में भी (म.प्र. सरकार की ओर से) अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया--

(लंदन, पूर्वी पश्चिमी जर्मनी, एडिनबरा, पेरिस आदि देशों में) इसका जन्म १९२६ मे, ग्राम बासिन, भिलाई के पास हुआ। ये चंदन टीका नहीं लगाते। वेशभूषा साधारण और हाथ में इकतारा रखते हैं।

पूनाराम निषाद- पूनाराम निषाद का जन्म सन् १९४१ में ग्राम रिंगनी में हुआ संगीत नाटक अकादमी द्वारा सन् १९७५ में राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के करकमलों द्वारा ताम्रपदक तथा ५ हजार रू. से सम्मानित। ये १९८१ से म.प्र. आदिवासी कला परिषद के सदस्य बने। १९७९ में इन्होंने "लोक कला पण्डवानी" की स्थापना की। १९७६ में ये विदेश गए। १९८२ मार्च में भारत सरकार द्वारा नई दिल्ली के सांस्कृतिक मण्डल के सदस्य मनोनीत किए गए।
इनकी विशेभूषा साधारण रहती थी--- पीली धोती और लाख की माला। पण्डवानी गाते समय कमीज नहीं पहनते। चाहे वह ठंड का मौसम हो या गर्मी, बरसात का। वे चंदन टीका लाल रंग का लगाते थे। मंच पर इनके साथ ५ व्यक्ति बैठते थे----
(१) पूनाराम निषाद (२) दल्लूराम बंछोर, (३) सुकालूराम निषाद (४) जगेसर राम
साहू (५) गनपतलाल
तमूरा (इकतारा), करताल, मंजीरा, पेटी (हारमोनियम), तबला, बेन्जो आदि वाद्य का उपयोग गायकी के समय करते थे। इनके गुरू  झाडूराम देवांगन थे।

पूनाराम निषाद के प्रिय कथा प्रसंग रहे--- कर्णजन्म, भीष्म जन्म, पाण्डव जन्म कथा, द्रौपदी स्वयंवर, सुभ्रद्राहरण, अर्जुन हनुमान संवाद, शिशुपालवध, द्रौपदी चीर हरण, कीचकवध, भीष्म अर्जुन युद्ध, कुंती का पंच बाण मांगना, दुःशासन वध आदि।

विदेश प्रवास- अमेरिका, वाशिंगटन, शिकागो, कनाडा, टोरन्टो, पेरिस, इंग्लैंड, पूर्वी पश्चिमी, जर्मनी चेकोस्लोवाकिया आदि।

कापालिक शाखा--------

पण्डवानी गायकी में महिलाओं का प्रवेश और कपालिक शाखा का उभरना लोककला के क्षेत्र में रोचक घटना है। कपालिक शाखा शैली में मस्तिष्क की कल्पना का सहारा .लेकर (शास्त्र सम्मत नही), खड़े होकर, अभिनयात्मक ढंग से पण्डवानी गायकी प्रस्तुत की जाती है। इस शैली में महिलाएँ आगे आई। उनमें तीजन बाई, पूर्णिमाबाई, प्रभा यादव, लक्ष्मी बाई, ऋतु वर्मा आदि प्रमुख है।

कपालिक शाखा में अभिनय तत्व की प्रधानता होती है तथा अनेकों काल्पनिक कथाएँ एवं वर्तमान देशकाल परिस्थिति के अनुसार उपदेशात्मक तत्व भी जोड़ दिए जाते हैं। तीजन बाई भिलाई के पास गनियारी ग्राम में रहती हैं। पाटन में बीता बचपन उनकी यादों का सागर है। जीवन भर संघर्ष करने वाली यह लोक कलाकार शोषण की भी शिकार हुई। भिलाई इस्पात कारखाने में इन्हें जीविका के लिए नौकरी दी गई। पण्डवानी गायकी में अभिनय तत्व को जोड़कर पौरुष और ओज की बानगी देने वाली तीजन बाई ने विदेशों में भी नाम कमाया। महिला होने के नाते, पौरुष युक्त अभिनय का आकर्षण मनोरंजन व औत्सुक्य का, कला के साथ जोड़ने का काम किया।

पण्डवानी गायन में आज मनोरंजन अधिक आ गया है। आध्यात्मिक भाव व उदात्तता विलुप्त हो गई। इकतारा बजाया नहीं जाता। इकतारा को गायक “शो पीस" की तरह पकड़ते हैं। इन सब दोषों के समाविष्ट हो जाने से पण्डवानी का शुद्ध रूप दिखाई नहीं देता। परंतु पण्डवानी कथा गायन की लोकप्रियता बरकरार है। पहले भक्तितत्व की प्रधानता थी- धीरे धीरे मनोरंजन तत्व की प्रधानता हो गई। निश्चित रूप से नगरीय शैली व्यस्तता में पण्डवानी हमें बाँध लेती है।

तीजन बाई को पहले पद्मश्री फिर पद्‌मभूषण का सम्मान मिला ।

पंडवानी प्रसङ्ग के इतिहास में सबसे दुखद बात यह  है कि, पंडवानी के उद्भव व विकास के इतिहास में दोनों मामा  भांजा की जोडियों को कभी स्मरण नहीं किया गया।
जबकि ये दोनों छत्तीसगढ़ में पंडवानी गायन के प्रवर्तक रहे। कारण यह हो सकता है की भजनहा नारायण वर्मा एवं भजनहा सूबेदार आडिल स्वाभिमानी मालगुजार व शुद्ध भक्त थे।वे दोनों निःस्पृह  थे।यश, मान सम्मान की आकांक्षा से दूर,जहां भक्त पुकारते वहां चले जाते थे। उस समय न तो दूरदर्शन ,न आकाशवाणी से सम्पर्क रहा उनका,और न ही सरकारी लोक कला विभाग से।न ही वे राजनीति के सम्पर्क में रहे।
भजनहा सूबेदारजी तो मध्यकालीन संतों की तरह निस्पृह, भक्ति आस्था में डूबे,केवल गायन ही करते रहे।पंडवानी के  प्रवर्तक द्वय को नमन! पण्डवानी के इतिहास में ,लोक मानस में इनका नाम अमर रहेगा!
१६अप्रैल भजनहा सूबेदार आडिलजी का स्मरण दिवस!शत शत नमन!
--डॉ, सत्यभामा  आडिल
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