सुशील भोले के गुन लेवौ ये आय मोती बानी
सार-सार म सबो सार हे नोहय कथा-कहानी
कहां भटकथस पोथी-पतरा अउ जंगल-झाड़ी
बस अतके ल गांठ बांध लौ सिरतो बनहू ज्ञानी..
सोन पांखी के फांफा-मिरगा या बिखहर हो जीव
सबके भीतर बन के बइठे हे एकेच आत्मा शिव
तब कइसे कोनो छोटे-बड़े या ऊँचहा या नीच
सब वोकरे संतान ए संगी जतका जीव-सजीव ..
डारा-शाखा म कतेक बिछलबे पेंड़वा ल सीधा धर ले
जड़ संग जइसे वो ठोस रथे फेर तइसन जिनगी गढ ले
कतेक अमरबे पान-पतइला डारा तो रट ले टूट जाही
फेर इंकरे चक्कर म मूल घलो तोर हाथ ले छूट जाही..
छोड़ झंझट सगुण-निर्गुण के ये सब मन के भेद
एक ज्योति के रूप अनेक जस मरजी तस देख
कभू पानी त कभू भाप अउ बरफ कभू बन जाथे
बस एक तत्व बेरा-बेरा म अलग-अलग जनाथे..
कहूं नहाले नंदिया-नरवा या तीरथ कोनो धाम
माथ म घंस ले चंदन-बंदन नइ चमकय रे चाम
छोड़ देखावा रंगे कपड़ा के बस कर्म योग अपनाले
इही रद्दा ले मुक्ति मिलथे अउ शिव बाबा के धाम..
तोर-हमर संगी अब कइसे जुरही मीत-मितानी
हम करथन आरुग ज्ञान गोठ तैं गढथस जी कहानी
परबुधिया नइ रिहिन लोगन अब पढ बनगे हें ज्ञानी
हंस बरोबर अलगिया देथें इन अब तो दूध-पानी..
ज्ञान के मारग एकदम सोज्झे झन रट रे तैं पोथी
का जाने वोमा का लिखाय हे ते भरे हे घुनहा-थोथी
सबले उज्जर, पबरित-निरमल रद्दा तप-साधना के
सत्य सिरिफ इही म मिलथे, टूटथे चक्र बंधना के..
कतेक भटकहू पर के पाछू खुद धरौ धरम के झंडा
पुरखा मन संभाल राखे हें, जे आदिकाल के हंडा
भरे लबालब हे गुन म बस एला तुम कबिया लेवौ
नइ ठगहीं फेर तुंहला कोनोच जात-धरम के पंडा...
धरम के मारग अइसे नइहे के बस जोगड़ा हो जावन
बन के बोझा समाज ऊपर बस मांग-मांग के खावन
ये तो कोनो धरम नइ होइस, न आदर्श असन जीवन
जेला कहिथन भगवान हम ऊँकर जीवन अपनावन..
खुदेच उठाना परथे बोझा जब तक तन म स्वांसा हे
खोरवा-लुलुवा हो जावव भले इही जिनगी के फांसा हे
चार खांध तो तभे मिलही जब जीव शिव संग मिलही
तब तक घिलर के रेंगना परही जब तक एहर खटही..
जब मैं बसथंव जी मानव-सेवा के निरमल-ग्रंथ म
तब काबर खोजथस तैं मोला जाति-धरम अउ पंथ म
सिरतोन संगी एकरे सेती भटकत हस कतकों योनी म
अब समझ मोला पाए के रद्दा नइते फेर जाबे पुरोनी म..
आने वाला जाही एक दिन इही जिनगी के लेखा
तोप-ढांक ले कतकों चाहे कर ले कुछूच सरेखा
छोटे-बड़े राजा-परजा सबके एकेच गति होही
माटी के पुतरा कूद-फांद के माटी म मिल जाही..
भगवान पाए बर नइ लागय हजार ग्रंथ ल पढना
बस करना परथे वोकरे सहीं अपन जिनगी गढना
कर्महीन मनखे मन तो बस लपराही गोठ करथें
एकरे सेती रंग-रंग के बस उन किस्सा ल गढथें..
कोन कहिथे देवता सूतथे उहू म चार महीना
सांस-सांस म जे बसे हे वोकर का सुतना-जगना
लबरा होही अइसन मनखे जे अइसे गोठियाथे
अउ परबुधिया हे उहू मन, जे एला पतियाथे..
जाति-वर्ण म बंट के तुम कइसे जुरिहौ गढिया
कतकों जोर लगालौ फेर नइ बनव सुग्घर बढिया
छोड़व अइसन ग्रंथ-गुरु ल जे तुंहला अलगाथे
आदि धर्म जगा के फेर सिरिफ बनव छत्तीसगढिया..
जम्मो जीव-जगत जुरियावौ आदि धर्म के छइहां म
सृष्टि जेकर ले सिरजे हे उही मूल तत्व के बइहां म
सगुण-निर्गुण सब वोकरे रूप, तेज-शक्ति स्रोत
ऊँच-नीच के खँचका पाटव, जगावव परमारथ के जोत..
-सुशील भोले
आदि धर्म जागृति संस्थान, रायपुर
मो/व्हा. 9826992811
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