Thursday 13 January 2022

छत्तीसगढ़ी दशा.. रामनाथ साहू-3

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* आधुनिक काल के छत्तीसगढ़ी कविता : दशा अउ दिशा*
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                    ( भाग -3 )

          श्री राहुल सिंह जी के गवेषणामूलक आलेख म दानलीला के रचनाकाल सन 1903 स्वीकारे गय हे।  बाकी तिथि मन अउ परवर्ती संस्करण मन के आंय । दानलीला  तो हमर आधुनिक छत्तीसगढ़ी साहित्य के सबले मजबूत , सबला पोठ नींव के पथरा आय -

  -  दानलीला के अंश -
           
सब्बो के जगात     मड़वाहौं।
अभ्भी एकक  खोल देखाहौं।। 

रेंगब हर हांथी       लुर आथै।
पातर कन्हिया बाघ  हराथै?।।

केंरा जांघ      नख्ख है मोती।
कहौ बांचि हौ कोनौ कोती?।। 

कंवल बरोबर    हांथ देखाथै।
छाती  हंडुला   सोन लजाथै।। 

बोड़री समुंद  हबै  पंड़की गर।
कुंदरू ओठ  दाँत दरमी-थर।। 

सूरुज         चन्दा मुंहमें आहै।
टेंड़गा भऊं  अओ! कमठा है।।

तुर तुराय   मछरी अस आंखी।
हैं हमार      संगी मन साखी।।

सूवा   चोंच        नाक ठौंके है।
सांप सरिक    बेणी ओरमे है।। 

अभ्भो        दू-ठन बांचे पाहौ।
फोर    बताहौं सुनत लजाहौ।।

            आगु के छत्तीसगढ़ी कविता हर हिंदी के समानांतर रूप ले, आगु बढ़त रहिस , काबर कि अपन समय के हिंदी, संस्कृत, उर्दू -फ़ारसी , अंग्रेजी के उद्भट विद्वानमन ही  छत्तीसगढ़ी के घलव साहित्य रचना करत रहिन । अब हिंदी के असन , ये समय के  छत्तीसगढ़ी कविता मन स्वदेश- प्रेम,आजादी के संघर्ष, अपन भाषा के महत्तम, समाज- सुधार जइसन स्पष्ट परछर विषय  मन  छत्तीसगढ़ी कविता के  विषय वस्तु बनत रहिन । ये बखत  हिंदी कविता  हर स्थापित होके कईठन  वाद, उपवाद अपन म समोखत  रहिस फेर छत्तीसगढ़ी कविता हर अपन म  प्रगतिशील चेतना ला  धारण करे रहिस ।

            ये समय के कवि मन अपन आप में एक ठन समूचा संस्थान  रहिन । आगु के  अध्ययन -अनुशीलन  ये कवि मन ल ही सोपान बना करना उचित रहही , फेर यहां कालक्रम के बाध्यता नई  ये ।

पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'-
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                      समकालीन तथाकथित शिष्ट समुदाय में छत्तीसगढ़ी प्रेम जागृत करे बर  विप्र जी के बहुत  बड़े योगदान है । वोमन किसिम- किसिम के नान नान छत्तीसगढ़ी पुस्तक प्रकाशन के पक्षधर रहिन । हिंदी म शास्त्रीय छंद में रचना लिखे के साथे साथ लौकिक छंद मन म घलव  आप मन  रचना करे हावा । 

             सुआ  छंद , करमा छंद ,  दहँकी छंद मंडलाही छंद जइसन  देशज छंद म  रचना करे गय हे । आप मन हास्य व्यंग लिखे म घलव विशेष महारत हासिल करे रहा। कभु कभु  तो आपमन के अद्भुत शब्द संयोजन  अउ प्रतिमान मन  देखनी पर जाँय -

चऊ     मास के  पानी  परागे
जाना माना अब आकाश हर
चाऊर        साही     चरागे ।।

आपमन के सुप्रसिद्ध कविता  'धमनी हाट' के बानगी देखव -

तोला देखे रेहेंव गा, हो तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, हो तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~

लकर धकर आये जोही, आंखी ल मटकाये गा
लकर धकर आये जोही, आंखी ल मटकाये गा
कइसे जादु करे मोला
कइसे जादु करे मोला, सुक्खा म रिझाये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~

चोंगी पिये बइठे बइठे, माड़ी ल लमाये गा
चोंगी पिये बइठे बइठे, माड़ी ल लमाये गा
घेरी-बेरी देखे मोला
घेरी-बेरी देखे मोला, बही तें बनाये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~

बोइर तरी बइठे बइहा, चना-मुर्रा खाये गा
बोइर तरी बइठे बइहा, चना-मुर्रा खाये गा
सुटूर सुटूर रेंगे कइसे
सुटूर सुटूर रेंगे कइसे, बोले न बताये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~

       आपमन के एक ठन अउ अति प्रसिद्ध गीत देखव -

धन-धन रे मोर किसान
धन-धन रे मोर किसान

मैं तो तोला जानेव तैं अस,
तैं अस भुंइया के भगवान।
तीन हाथ के पटकू पहिरे
मूड मं बांधे फरिया
ठंड-गरम चऊमास कटिस तोर
काया परगे करिया

कमाये बर नइ चिन्हस
मंझंन सांझ अऊ बिहान।
तरिया तीर तोर गांव बसे हे
बुडती बाजू बंजर
चारो खूंट मं खेत-खार तोर
रहिथस ओखर अंदर

इंहे गुजारा गाय-गरू के
खरिका अऊ दइहान।

तोर रेहे के घर ल देखथन
नान-नान छितका कुरिया
ओही मं अंगना ओही मं परछी
ओही मं सास बहुरिया
एक तीर मं गाय के कोठा
ओखरो उपर म हे मचान।

बडे बिहनिया बासी खाथस
फेर उठाथस नांगर
ठाढ बेरा ले खेत ल जोंतथस
मर-मर टोरथस जांगर
रिग बिग ले अन्न उपजाथस
कहां ले करौं तोर बखान
धन-धन रे मोर किसान ।

ठीक अइसन एक ठन अउ प्रसिद्ध कविता हे-

देवता बन के आए गांधी
देवता बन के  आए     ।

    विप्र  जी छत्तीसगढ़ी कविता ल एकठन नावा स्वरूप ,निजता अउ राग दिन ।

 श्री कोदूराम दलित
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              ग्रामीण संस्कृति और चिन्हारी के संवाहक कोदूराम दलित जी के कविताई के अपन अद्भुत संसार हे । गांव- गंवई के शब्द मन ल लेके  वो जो कविता रचिन । वोहर अपने आप में अपन  प्रतिमान  आय -

छन्नर- छन्नर      पैरी    बाजय,
खन्नर         खन्नर           चुरी
हांसत-कुलकत -मटकत रेंगय
बेलबेलहिन                    टुरी

वहीं भारत -चीन युद्ध के समय के उँकर राष्ट्रीय भावना हर छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्राण आय-

ओरी, ओरी दिया बारबो।
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आइस सुग्घर परब सुरहुत्ती अऊ देवारी
चल नोनी, हम, ओरी, ओरी दिया बारबो।

जउन सिपाही जी परान होमिन स्वदेश बर,
पहिली उंकरे आज आरती, हम उतारबो।

वो लछमी के पूजा हमला करना हेबय
जेहर राष्ट्र-सुरक्षा-कोष हमर भर देही।

उही सोन-चांदी ऊपर हम फूल चढाबो
जेकर से बैरी मारे बर, गोली लेही।

झन लेबे बाबू रे, तै फूलझड़ी फटाका
बिपदा के बेरा मां दस-पंघरा रूपिया के।

येखर से तो ऊनी कम्बल लेबे तैहर
देही काम जाड़ मां, एक सैनिक भइया के

राउत भइया, चलो आज सब्बो झिन मिलके
देश जागरण के दोहा हम खूब पारबो।

सेना मा जाए खातिर जे राजी होही
आज उही भय्या ल हम्म तिलक सारबो।

देवारी के दिया घलो मन क़हत हवयं के
भइया होरे, कब तुम्मन अंजोर मं आहू?

खेदारों मेड़ों के रावन मन ला पहिली
फेर सुरहुती अउ देवारी खूब मनाहूं।

बाबू प्यारेलाल गुप्त -
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बहुत कम कविता लिखिन हे ,फेर जउन लिखिन वो तो पोठेच हे-

हमर कतका सुन्दर गांव
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हमर कतका सुन्दर गांव

जइसे लछमि जी के पांव

धर उज्जर लीपे पोते

जेला देख हवेली रोथे

सुध्धर चिकनाये भुइया

चाहे भगत परुस ल गूइया

अंगना मां बइला गरुवा

लकठा मां कोला बारी

जंह बोथन साग तरकारी

ये हर अनपूरना के ठांवा।। हमर

बाहिर मां खातू के गड्डा

जंह गोबर होथे एकट्ठा

धरती ला रसा पियाथे

वोला पीके अन्न उपयाथे

ल देखा हमर कोठार

जहं खरही के गंजे पहार

गये हे गाड़ा बरछा

तेकर लकठा मां हवे मदरसा

जहं नित कुटें नित खांय।। हमर

जहां पक्का घाट बंधाये

चला चला तरइया नहाये

ओ हो, करिया सफ्फा जल

जहं फूले हे लाल कंवल

लकठा मां हय अमरैया

बनवोइर अउर मकैया

फूले हय सरसों पिंवरा

जइसे नवा बहू के लुगरा

जंह घाम लगे न छांव।। हमर

जहाँ जल्दी गिंया नहाई

महदेव ला पानी चढ़ाई

भौजी बर बाबू मंगिहा

"गोई मोर संग झन लगिहा"

"ननदी धीरे धीरे चल

तुंहर हंडुला ले छलकत जल"

कहिके अइसे मुसकाइस

जाना अमरित चंदा बरसाइस

ओला छांड़ कंहू न जांव।। हमर

खाथे रोज सोंहारी

ओ दे आवत हे पटवारी

झींटी नेस दूबर पातर

तउने च मंदरसा के मास्टर

सब्बो के काम चलाथै

फैर दूना ब्याज लगाथै

खेदुवा साव महाजन

जेकर साहुन जइसे बाघिन

जह छल कपट न दुरांव।। हमर

आपस मां होथन राजी

जंह नइये मुकदमा बाजी

भेद भाव नइ जानन

ऊँच नीच नइ जानन

ऊँच नीच नइ मानन

दुख सुख मां एक हो जाथी

जइसे एक दिया दू बाती

चरखा रोज चलाथन

गाँधी के गुन-गाथन

हम लेथन राम के नावा।। हमर

हरि ठाकुर
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             छत्तीसगढ़ी कविता म वीर रस अउ नावा जनवादी चेतना के मशाल जलाकर पहली  बार बहुत ही संजीदगी के साथ,  इहाँ के दोहन- शोषण ल उजागर  करइया हरि ठाकुर जी के कविता हर  वोमन के अपन खुद के संघर्ष  के आँच ले तपे हुए हे -

भीतर भीतर चुरत हवन जी
हम   चाऊँर  जइसे अंधन के

        प्राकृतिक संसाधन मन के दोहन उपर उँकर  नजर देखव-

सबे खेत ला बना दिन खदान
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सबे खेत ला बना दिन खदान
किसान अब का करही
कहाँ बोही काहां लूही धान
किसान अब का करही

काली तक मालिक वो रहिस मसहूर
बनके वो बैठे हे दिखे मजदूर।
लागा बोड़ी में बुड़गे किसान

उछरत हे चिमनी ह धुंगिया अपार
चुचवावत हे पूंजीवाला के लार
एती टी बी म निकरत हे प्रान

वोकर तिजोरी म खसखस ले नोट
लाघन मा पेट हमर करे पोट पोट
जिनगी ह लागत हे मसान

चल दिन सब नेता मन दिल्ली भोपाल
पूंजी वाला मन के बनगे दलाल
काबर गा रिसाथ भगवान

पढ़ लिख के लई का मन बैठे बेकार
भगो भगो भगो कहिके देते निकार
ए कइसन बिकास हे महान

      वहीं चलचित्र बर वो  'गोंदा फुलगे मोर राजा' जइसन कालजयी गीत लिखिन ।

नारायण लाल परमार
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          छत्तीसगढ़ी कविता म आधुनिक भाव व्यंजना, श्रृंगार के आधुनिक तत्व अउ प्रतिमान  लेके श्री नारायण लाल परमार के छत्तीसगढ़ी काव्य जगत म अवतरण होइस । वोकर अपन विशिष्ट शैली हे अपन अभिव्यक्ति करे के -

रेंगना सुहावत है।
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नदिया के कुधरी साहींन काबर बइठ जान
पानी कस लहर लहर रेंगना सुहावत है।
हिम्मत राखेन, मानेन
आत्मा के कहना ला।
पहिरेन हम सबर दिन
आगी के गहना ला।
सूरज, बिंदिया बन चमकय हार माथ मां,
करके अब करिया मुंह, अंधियारी जावत हे।
मितानी चालत हावय
हाथ अउ पांवव के।
हम दुकान नइ खोलेन
घाम अउ छांव के।
छोटे अउ बड़े फल, हमार बर बरोबर हे,
उहिच पाय के जिनगी, गज़ब महमहावत हे।
चीखे हन, हम सवाद,
नवा-नवा ‘डहर के
देखे हन नौटंकी
अमृत अउ जहर के
पी डारेन जहर ला, संगी। हम नीलकंठ,
हमर पछीना अमृत सहीं चुहचुहात हे।
तराजू मां नई तौलेन
हमन अपन सांस ला।
हांसत-हांसत हेरेन
पीरा के फांस ला।
अडचन ला मानेन हम निच्चट चंदन चोवा,
धरती महतारी के भाग मुचमुचावत हे।

विमल कुमार पाठक
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          छत्तीसगढ़ी कविता में  देह अउ देह गंध ल उतार के  वोला, अपन समय के चलत आन- आन भाषा मन के कविता, के बराबरी में खड़ा करने वाला कवि मन मन म विमल कुमार पाठक जी के नाम बहुत आदर के साथ लिये जाही । युवावस्था ,भरे- जवानी , प्रेम, स्वतंत्रता ,बंधन- मुक्ति के आकांक्षा... सब कुछ आपके कविता म देखे जा सकत हे -

उनमन नहावत तो होहीं रे
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करा असन ठरत हावय पानी रे नदिया के
उनमन नहांवत तो होहीं रे।
उंखरे तो गांवे ले आये हे नदिया ह
होही नहांवत मोर जोही रे।
महर-महर महकत मम्हावत हे पानी ह।
लागत हे घुरगे हे सइघो जवानी ह।
चट कत कस, गुर-गुर ले छू वत हे
अंग-अंग ल, चूंदी फरियावत तो होही रे।
तउरत नहांवत तो होही रे।
अब तो गुर-गुर एक ढंगे के लागत हे।
अट गे पानी हा, सुरता देवावत हे।
ओठ उंकर चूमे कस मिट्ठ -मिट्ठ लागत हे।
पीयत अउ फुरकत तो होही रे।
घुटकत अउ पुलकत तो होहीं रे।
करा असन ठरत हावय पानी रे
नदिया के उनमन नहावत …… ।
ये दे मटमइला पानी के रंग हो गय।
अब तो लगथे घटौदा मं उन चढ़ गंय।
साबुन तो चुपरे कस पानी ह दीखत हे
अंग अंग मं चुपरत तो होहीं रे।
लुगरा ल कांचत तो होहीं रे।
करा असन ठरत हावय
पानी रे नदिया के
उनमन नहांवत तो होहीं रे।
कइसे पानी अब तात-तात लागत हे।
लगथे लुगरा निचोके उन जावत हे।
पानी अब सिटठ तो हो गय रे, लागत हे….
घर बर उन लहुट त तो होहीं रे।
नदिया ले लहुटत तो होहीं रे
करा असन ठरत हावय…..

           एमन के संग पंडित कुंज बिहारी चौबे,  स्वर्गीय हनुमंत नायडू 'राजदीप' ये समय के बड़े पोठ कवि रहिन ।  ये जुग हर छत्तीसगढ़ी कविता के जो मजबूत  नींव तैयार करे हे, ओकरे ऊपर में आज सशक्त और समृद्ध छत्तीसगढ़ी कविता के महल तैयार  होवत हे।

( सरलग )

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